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विशेष लेख : हमारा तन : द्वारिका प्रसाद अग्रवाल की कलम से

10/10/2022 posted by Dwarka Prasad Agarwal Vishesh Lekh    

बचपन से अब वृद्धावस्था तक खाते-पीते-जीते गुजर रहा है. पीछे मुड़ कर देखने का मन होता है कि आखिर कैसे गुजरा? ऐसा लगता है कि सब कुछ अपने-आप होता गया और मैं यहाँ तक पहुँच गया. जैसा मेरा पारिवारिक माहौल था, वैसे खाने-पीने की आदतें विकसित हुई. क्या खाने से फायदा है या खाने से नुकसान, इसे बचपन से अब तक सुनते चले आ रहा हूँ लेकिन सुनता भर हूँ, जो मन आता है या जो मिल जाता है, उसे खा लेता हूँ. उबला हुआ भोजन अरुचिकर लगता है, वहीँ पर तला हुआ भोजन या नमकीन या मिठाई देखकर खुद पर काबू पाना मेरे लिये दुष्कर है. आग्रह का कमजोर हूँ इसलिए कोई यदि प्रेम से अधिक खिलाता है तो मना नहीं कर पाता, क्या करूं?

धार्मिक और संस्कारी परिवार में जन्म हुआ इसलिए बुरी आदतों की ओर आकर्षण कम ही बना लेकिन तम्बाखू खाना सीखा क्योंकि मेरे वरिष्ठ भी इनका उपयोग करते थे. बीड़ी-सिगरेट के धुएं की सार्वजनिक गंध जानता हूँ लेकिन व्यक्तिगत अनुभव शून्य है. खूब तम्बाखू खाई. मेरे डा.महेश कासलीवाल मुझे कहा करते थे- ‘देख लेना, तुम कैंसर से मरोगे.’ उनकी बात आधी सच हुई, मुझे मुंह में कैंसर हुआ, तीन बार उसका आक्रमण हुआ लेकिन मैं कैंसर के कारण मरा नहीं, बीस सालों से उस खतरनाक बीमारी से लड़-भिड़ रहा हूँ, जिंदा हूँ.

बचपन में खेल-कूद की मनाही थी, बाहर खेलने पर बहुत मार पड़ती थी इसलिए शरीर मजबूत न हुआ. विवाह के पहले मैं दुबला-पतला था, विवाह के बाद शरीर भरना शुरू हुआ और पेट बढ़ने लगा. यह सब इतने विस्तार से इसलिए बता रहा हूँ कि जीवन का बेहद महत्वपूर्ण समय में मैंने अपने शरीर की देखरेख में भीषण लापरवाही की जिसकी सज़ा मैंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तबीयत से भुगती.

जीवन का मध्यकाल स्वास्थ्य की दृष्टि से सामान्य रहा. भोजन से जितना रक्त बनता था, वह मेरे पिता और बड़े भाई साहब की डांट-डपट से ‘बेलेंस’ हो जाता था इसलिए न मरा, न मोटाया. इन दिनों पारिवारिक विद्रूपताओं और आर्थिक संकट ने चौतरफा हमला किया. परिवार से अलग होना पड़ा. बच्चे छोटे-छोटे थे, ज़िम्मेदारी बड़ी होती जा रही थी लेकिन न शरीर कमजोर पड़ा और न मन. किसी प्रकार बच्चे बड़े हो गये, देनदारी बहुत बढ़ गयी तब ही सन २००२ में मुझ पर कैंसर का पहला आक्रमण हुआ. मैं बच गया. पचपन वर्ष की उम्र में परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली कि मुझे स्वयं को मज़बूत करने का निर्णय लेना पड़ा और मैंने ‘जिम’ की शरण ली. दो साल तक लगातार गया और अपना वजन दस किलो कम किया अर्थात १०० से घटकर ९० किलोग्राम.

सन २००७ में कोयंबत्तूर के ईशा फाउंडेशन के सात दिवसीय कार्यक्रम में मैं योग का विधिवत प्रशिक्षण लिया और तब से आज तक नियमित रूप से योगासन और प्राणायाम करता हूँ, प्रतिदिन डेढ़ घंटे का समय देता हूँ. पांच किलोमीटर सायकिल चलाता हूँ, आधा घंटे तक पैदल चलने के उपाय खोजता हूँ. पचहत्तरवां साल चल रहा है लेकिन मेरी उम्र की सुई पचपन साल में ही अटकी हुई है.

प्रश्न यह है कि मैं अपना ‘हेल्थ बुलेटिन’ आपको क्यों बता रहा हूँ? आपको यह सब बताने का आशय यह है कि सर्वप्रथम हम यह समझें कि अधिकतर बीमारियों के कारण हम स्वयं हैं. कुछ बीमारियाँ अनुवांशिक भी होती हैं, वे समय आने पर उभरेंगी ही लेकिन यदि हम अपने शरीर की आंतरिक देखरेख करें तो संभावित बीमारियों से स्वयं को बचा सकते हैं. यदि अन्यान्य कारणों से हम बीमार पड़ भी जायें तो उससे बराबरी से लड़ सकते हैं.

सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि हमारा शरीर ‘सुपर कंप्यूटर’ है, इस कंप्यूटर को मनुष्य नहीं बना सकता, केवल प्रकृति बना सकती है. इस अद्भुत शरीर में सारी क्रियाएं स्वसंचालित हैं, स्वस्थ रहना शरीर का स्वाभाविक गुण है और बीमारियाँ बाहरी संक्रमण का प्रभाव हैं.
पैदल चलना, योगासन, प्राणायाम और ध्यान का आनंद ‘गूंगे केरी सर्करा’ है. नदी के किनारे खड़े होकर पानी को देखकर डरना और ज्ञान बताना अलग बात है और पानी में प्रवेश करके तैरने का आनंद लेना अलग बात है. किसी सुयोग्य योग मार्गदर्शक की तलाश करें, उनसे जुड़ें और योग का नियमित अभ्यास करें तो आपको जीवन में अभूतपूर्व बदलाव महसूस होगा, जितना डूबेंगे, उतना पाएंगे.

एक दिन जाना है, रोते हुए क्यों जाना? रोते हुए आये थे, हंसते-नाचते जाएंगे. आपको एक बात बता दूं, मैंने अपनी वसीयत में लिखा है कि मेरी मृत्यु पर कोई न रोये और मृत्यु के बाद जो भी रविवार आये, उस दिन एक पार्टी का आयोजन किया जाए और सब मिल कर मस्त नाचें और ख़ुशी मनाएं.

Author Profile

Dwarka Prasad Agarwal
Dwarka Prasad Agarwalद्वारिका प्रसाद अग्रवाल (अतिथि लेखक, बिलासपुर)
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के निवासी, मूल रूप से व्यापारी, गद्य एवं पद्य लेखन में रूचि. व्यक्तित्व विकास तथा व्यवहार विज्ञान के प्रशिक्षक, अब तक ११ पुस्तकों के लेखक.