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विशेष लेख : व्यक्ति की अभिव्यक्ति – द्वारिका प्रसाद अग्रवाल 

03/10/2022 posted by Priyanka (Media Desk) Vishesh Lekh    
अभिव्यक्ति तीन तरीके होते हैं, ध्वनि, लिपि और संकेत. मनुष्य स्वयं को इन विधियों से अपनी बात संप्रेषित करता है. अभिव्यक्ति में सर्वाधिक उपयोग ध्वनि का होता है. ध्वनि के उपयोग में मनुष्य के भाव का महत्व होता है. जैसा भाव होगा, वैसी ध्वनि निकलेगी. वक्ता के मन में यदि आदर का भाव है तो उसकी वाणी में लोच होगा और यदि अपमान का भाव है तो तीखापन. सहज समझाने का भाव होगा तो भाषा तरल होगी और जबरदस्ती समझाने का भाव होगा तो दबावपूर्ण शब्द निकलेंगे. मनुष्य अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग मनस्थिति में रहता है.
मान लीजिए, किसी वक्त वह किसी बात से क्रोधित है और वह जोर से बोल रहा है, अपशब्दों का प्रयोग कर रहा है तो उस व्यक्ति की बातें सुनकर यदि हम यह धारणा बना लेते हैं कि अमुक व्यक्ति क्रोधी ‘स्वभाव’ का है तो यह उसके व्यक्तित्व का समुचित मूल्यांकन नहीं होगा. हो सकता कि वह व्यक्ति अमूमन शांत स्वभाव का हो, उस वक्त उसकी वैसी अभिव्यक्ति उसके उस समय किसी कारण विशेष की वज़ह से गुस्से के रूप में अभिव्यक्त हुई हो.
भाव का प्रभाव उसके शब्दों के चयन पर पड़ता है, भाव का प्रभाव उसकी भाव-भंगिमा पर पड़ता है और भाव की भिन्नता का प्रभाव उसके मुख से निकलने वाली ध्वनि पर पड़ता है. बोलने की शैली, उसका उतार-चढ़ाव और उसकी तीव्रता का मूल तत्व हमारे मन में चल रहा भाव होता है, यह भाव समय-समय पर बदलते रहता है इसलिए किसी व्यक्ति की किसी एक बात को सुनकर उसके व्यक्तित्व का अनुमान लगाना बेहद कठिन है.
भाषा भाव की अनुगामी होती है. कुछ ऐसे चालाक होते हैं जो मन के भावों को छुपाकर दिखावटी बातें करते हैं. कोई व्यक्ति घर आया, उसने घंटी बजाई, आपने दरवाजा खोला, उसे देखा और मन में भाव आया, ‘आ गया दिमाग चाटने…..(अपशब्द)….’ लेकिन चेहरे पर मुस्कान लाकर बोलते हैं, ‘आइये, आइये, अहोभाग्य हैं हमारे जो आप हमारे घर पधारे…’ ऐसी ध्वनि से हम जो अनुमान सामने वाले के व्यक्तित्व का लगाएंगे वह निश्चयतः दूषित होगा. मनुष्य के व्यक्तित्व का आकलन घर के बाहर के व्यवहार पर करना गलत होगा,
बाहर की दुनिया में उसका अभिनय अलग होता है और घर में अलग. चतुर व्यक्ति अपने वाक्चातुर्य से भाव और भाषा को अलग कर लेता है. कुल निष्कर्ष यह है कि भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारण में बहुत सहायक सिद्ध नहीं होती, कई बार धोखा हो जाता है. वहीं पर, मौनी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता करना उसके अन्तर्मुखी होने के कारण बेहद कठिन होता है, फिर उसकी कार्यशैली पर गौर करने से उसके व्यक्तित्व का पता चल पाता है.
मजेदार बात यह है कि लिखते वक्त लेखक सावधान रहता है जबकि बोलते वक्त वक्ता असावधान. दोनों में शब्द चयन में भी अंतर होता है. लिखित में शब्द व्याकरणसम्मत और अलंकारयुक्त होते हैं जबकि बोलने में सरल, सहज और आडंबरमुक्त होते हैं. किसी भी व्यक्ति की असल व्यक्तित्व का उसके लिखे से पता लगाना कठिन होता है जबकि कई बार उसके बोलने से उसकी असलियत आसानी से सामने आ जाती है.
एक सुदर्शन व्यक्ति को देखकर हम उसके रंगरूप और कपड़ों से प्रभावित हो सकते हैं लेकिन यदि उसकी भाषा दोषपूर्ण है तो उसके प्रति हमारी धारणा तुरंत बदल जाती है. वहीं पर कमजोर देहयष्टि और अनियमित वेशभूषा को देखकर किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में बनी धारणा उसकी ओजपूर्ण वाणी को सुनकर बदल भी जाती है. मोहनदास करमचंद गाँधी की दुबली-पतली काया, अधनंगा बदन और घुटनों तक धोती को देखकर उनके व्यक्तिव का प्रथम प्रभाव बेहद निराशाजनक होता था. उनकी वाणी में भी ओज नहीं था, आरोह-अवरोह नहीं था, सुनने वाले को प्रभावित करने में एकदम असमर्थ लेकिन उनकी बातों में जो दम था, जो कंटेंट था, वह इतना प्रभावोत्पादक था कि उनकी बातों के असर से न केवल भारतवासी वरन विदेशी भी प्रभावित हुए थे. तो, व्यक्तित्व की पहचान में कई बार भाषा असफल हो जाती है.
मनुष्य के व्यक्तित्व का वास्तविक पता उसके आहार, विहार और व्यवहार से चलता है. यहाँ आहार-विहार की चर्चा आवश्यक नहीं है लेकिन व्यवहार के बारे में कुछ बातें समझना जरूरी है. यदि मनुष्य में मानवीय भाव है तो उसका व्यवहार मीठा, लोचपूर्ण और सौहार्द्र से भरपूर होगा. अगर मानवीय भाव नहीं है तो उसकी बातों में निरर्थक आलोचना, अहंकार और द्वेष का पुट होगा. मनुष्य विभिन्न लोगों से मिलता-जुलता है, उन सबसे उसका व्यवहार भिन्न-भिन्न होता है. अपने से श्रेष्ठ से उसका व्यवहार आदरपूर्ण होगा, बराबरी वाले से सहज होगा,
कर्मचारी से आदेशात्मक होगा लेकिन कुल मिलाकर उसकी ‘एप्रोच’ कैसी है, इससे उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है. दरअसल किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व समुद्र में तैरते हुए ‘आइसबर्ग’ की तरह होता है जिसका कम हिस्सा ऊपर दिखाई देता है और अधिक हिस्सा पानी में डूबा रहता है जो किसी को दिखाई नहीं पड़ता. जो दिखता है वह अधूरे से भी कम है, जो दिखाई नहीं पड़ता वह उसके व्यक्तित्व का बड़ा भाग होता है. सामान्यतया इसी वज़ह से सामने वाले के व्यक्तित्व का समुचित अंदाज़ नहीं हो पाता और उसके बारे में भ्रम की स्थिति बन जाती है.
व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है. अभिव्यक्ति ध्वनि के माध्यम से हो, या लेख के या संकेत के, वह व्यक्त होना चाहता है. उसी प्रकार सामने वाला इन्हीं माध्यमों से उसके व्यक्तित्व का आकलन करने की कोशिश करता है लेकिन व्यक्ति के व्यक्तित्व का छुपा हुआ हिस्सा छुपा ही रह जाता है क्योंकि पर्देदारी रहती है. बोलने में पर्देदारी, लिखने में पर्देदारी और शारीरिक भावभंगिमा में पर्देदारी. लिखने की पर्देदारी पर एक घटना का ज़िक्र करना चाहता हूँ, मुझे एक शहर से पत्र आया जिसमें बिलासपुर में रहने वाले एक विवाहयोग्य युवक के बारे में अन्तरंग जानकारी उन्हें चाहिए थी. लड़का जोजवा था, झक्की था,
अब मेरे सामने समस्या थी कि मैं यह बात लिखित में कैसे दूं? मैंने उन्हें उत्तर दिया, ‘लड़का जरूरत से ज्यादा सीधा है, आप स्वयं आकर देख लें, फिर जैसा उचित समझें निर्णय ले लें.’ वे लोग बिलासपुर आये, लड़के को देखा, उन्हें पसंद आया, विवाह हो गया. लेखकीय चातुर्य से मेरे प्राण बच गए. उसी प्रकार शारीरिक भावभंगिमा का लुभाने वाला प्रदर्शन करके राजनीति करने वाले नेता हमें बहलाते-फुसलाते रहते हैं और थोक भाव में वोट समेट कर शासक बन जाते हैं और मतदाता छला हुआ महसूस करता है क्योंकि उस नेता की झूठी बातों और छद्म भाव भंगिमा को मतदाता पूरे तौर पर सही-सही समझ नहीं पाया और उसके व्यक्तित्व की असलियत समझने में भूल हुई.
‘है कशिश तुम्हारी आँखों में या कोई और बात है
तुम झूठ कह रहे थे मुझे ऐतबार था.’
संक्षेप में, भाषा किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सही आकलन करने में सक्षम नहीं होती, हाँ, आंशिक रूप से पता लगाया जा सकता है. मनुष्य जैसे-जैसे बड़ा होता है, दुनियादारी सीख लेता है, बातें बनाना जान जाता है, लेखन कला में निपुण हो जाता है और अभिनय करना सीख लेता है, वह भाषा से खेलने लगता है और उसके असली व्यक्तित्व को बूझना मुश्किल होता जाता है.

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-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
चलभाष : 9893123663

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