जनजातीय गौरव दिवस: आदिवासी भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर विशेष (जीवनी)
“मैं केवल देह नहीं
मैं जंगल का पुस्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं सकता
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!”
कवि हरिराम बीणा की यह पंक्तिया आदिवासियों के हक़ और अधिकारों के साथ-साथ संघर्ष की एक कहानी बया करती है, जो उपनिषदवादी ऍंगरेज सरकार, साहूकार और जमींदारियों के अमाननीय नीतियों पर कड़ा प्रहार करती है। भारत के दो तिहाही क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाए ऍंगरेज सरकार जब आदिवासियों पर अन्य कानून लादकर उनके जल, जंगल, जमीन के अधिकारों को नियंत्रित करने की कोशिश की तब अपने कुदरती अधिकारों के संरक्षण में उलगुलान का नारा देते हुए अपने अनपढ़ आदिवासी भाइयों ने क्रांति की ज्वाला भड़काने वाले बिसरा मुंडा की यह कहानी बड़ी ही प्रेरणदायी है।
स्वतंत्रता की लड़ाई इतनी आसान भी नहीं थी जितनी आज सुनने में लगती है । स्वतंत्रता का अ...