गधों में भीषण रोष व्याप्त था। हुआ यह कि कुछ तथाकथित स्वयंभू वरिष्ठ गधों ने मिलकर गर्दभाध्यक्ष का चुनाव कर लिया था एवं शेष गधों को कानों-कान खबर नहीं हुई।
गधों ने अपने व्हाट्सएप ग्रुप में जबरदस्त चिल्लपों मचाई हुई थी। कई ने कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया था। एक अपेक्षाकृत परिष्कृत गधे ने जिसे भ्रम था कि वो इंसान बनने की प्रक्रिया में है समझाया -“चुनने दो किसी को भी गर्दभाध्यक्ष, क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी हमारे समाज के 99 प्रतिशत गधों को तो समाज से कोई लेना देना नहीं है। इन गधों के दम पर आप कोई क्रांति तो छोड़िये, सरपंच अथवा पार्षद तक का चुनाव नहीं जीत सकते। इसके पूर्व दशकों तक जो गर्दभाध्यक्ष हुये हैं, उन्होंने ही समाज के लिये आज तक क्या किया है। वास्तव में कुछ अप्रासंगिक हो चुके लोगों ने यह संगठन बना रखा है, जहां ये घटिया स्तर की राजनीति कर किसी भी तरह से स्वयं को प्रासंगिक बनाये हुये है। अंततः गधों का अध्यक्ष तो कोई गधा ही रहेगा। अतः लड़ने-मरने दो आपस में इनको।”
एक युवा गधे ने विरोध किया – “हम आपस में लड़ेंगे नहीं तो हमे गधा कौन कहेगा। यही तो हमारी पहचान एवं हमारी संस्कृति है। चुनाव होना ही चाहिये।”
एक अन्य गधे को अभी भी गर्दभ समाज से उम्मीद बाकी थी। उसने सुझाव दिया – “वास्तव में कुछ सठियाये हुए बूढ़े गधों ने समाज को नर्क बना रखा है। दशकों से ये मात्र अपना उल्लू सीधा करते आये हैं। क्यों न हम भी एक “मार्गदर्शक मंडल” बनाकर इन बूढ़े गधों को वहां पदस्थापित कर दें। इन्हें स्पष्ट कर दिया जाये कि तुम मार्गदर्शक मंडल में जरूर हो किन्तु तुम्हारा काम मार्गदर्शन करना बिल्कुल नहीं है। साल में एकाध बार बुलाकर सम्मानित कर देंगे। अब ज्यादा रायता मत फैलाओ।”
वास्तव में जिसे गर्दभाध्यक्ष चुना गया था उसे भी अखबार के माध्यम से ही पता चला था कि वह नया गर्दभाध्यक्ष है। वह प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नहीं था। आगे उसे रबरस्टेम्प बन कर रहना था। गालियां अलग से पड़ रही थी।
चर्चा जारी थी। एक गधा जो कि वास्तव में गधा ही था। वह चुप था। बार-बार उकसाने पर भी वह कुछ नहीं बोला। वह सोच रहा था – ” मैंने इन गधों की भलाई के लिये दिन-रात एक कर दिया। अपने घर-परिवार की कीमत पर समाज को महत्व देता रहा। कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रस्त होता रहा किन्तु समाज सर्वोपरि मानता रहा। आखिर हासिल क्या हुआ। इतने गर्दभ सम्मान समारोह, पत्रिका प्रकाशन, समाज सेवा से संबंधी सैकड़ो कार्यक्रम – सभी में बिना किसी स्वार्थ के लगा रहा। अब तो यहां आत्मसम्मान भी बचाना मुश्किल हो रहा है।”
यह गर्दभ कथा है। अनिश्चित काल तक जारी रह सकती है। फिलहाल इस कथा के पात्र बिल्कुल काल्पनिक नहीं हैं। यदि आपको यह सब आस-पास घटित होता हुआ दिखे तो इसे संयोग बिल्कुल न समझे।
अंततः जहां गधों को पूजा जायेगा वहां यही सब दृष्टिगोचर होगा।
Author Profile
- मैं अरुण कुमार मिश्रा मूलतः भिलाई छत्तीसगढ़ से है। वर्तमान में एनटीपीसी खरगोन में बतौर हिंदी अधिकारी कार्यरत है। गोंडवाना एक्सप्रेस मीडिया के विशेष अतिथि लेखक है.
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