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विशेष लेख : चिकित्सालय से बोल रहा हूँ

28/10/2022 posted by Arun Mishra Vishesh Lekh    

शहर की मुख्य सड़क पर सैकड़ों एकड़ के भू-भाग पर एक विशालकाय सात-आठ मंज़िला ढांचा स्थित है, लोग इसे चिकित्सालय कहते हैं। साइन-बोर्ड को देखने से पता चलता है कि यह मात्र चिकित्सालय ही नहीं अनुसंधान केंद्र भी है। हालांकि आज तक किस विषय पर अनुसंधान हुआ है एवं उससे मरीजों को क्या फायदा मिला है, यह स्वयं अनुसंधान का विषय है।

यह तथाकथित चिकित्सालय पचास वर्ष से भी ज्यादा पुराना बताया जाता है। इसके बारे में तमाम किवदंतियाँ प्रचलित हैं। एक समय था जब इसे राज्य का सर्वोत्कृष्ट चिकित्सालय माना जाता था। यह गुजरे जमाने की बात है। उस समय चिकित्सक को भगवान का दूसरा रूप समझा जाता था एवं विकल्प के अभाव में मरीज चिकित्सालय स्टाफ की हर नौटंकी, बदतमीजी एवं बेवकूफी बरदाश्त कर लेता था। किन्तु अब परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। आज की तारीख में चिकित्सक वहाँ वेतनभोगी कर्मचारी से ज्यादा की हैसियत नहीं रखता है एवं यह उचित भी है।

इस चिकित्सालय के चिकित्सकों हेतु बुनियादी शर्त है उनका बदतमीज एवं जाहिल होना। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है एवं आज भी शिद्दत से निभाई जा रही है। वही चिकित्सक यदि चिकित्सालय की नौकरी छोड़कर अपनी स्वयं की प्रैक्टिस शहर में ही शुरू कर देता है तो उसके व्यवहार में नाटकीय परिवर्तन देखा जाता है। वह अचानक मिलनसार होने का लबादा ओढ़ना शुरू कर देता है।

चिकित्सालय एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी का है। उस कंपनी के दिन भी कभी चिकित्सालय की तरह स्वर्णिम हुआ करते थे। अब दोनों ही परिस्थितियों के साथ स्वयं को न बदल पाने के कारण किसी तरह रेंग रहे हैं। एक बड़े अस्पताल के चिकित्सक में जितने अवगुण मिल सकते हैं, कमोबेश सभी यहाँ भी विद्यमान है। चिकित्सालय से ज्यादा ये घर पर मरीज देखना पसंद करते हैं। कुल मिलाकर प्राइवेट प्रैक्टिस की आमदनी बंधी-बंधाई मासिक आय से कई गुना ज्यादा है। घर पर भुगतान कर चिकित्सा प्राप्त करने वाले मरीजों को ये चिकित्सालय आने पर स्वयं के रसूख के आधार पर कई विशेष सुविधाएं मुहैया कराते हैं। कई चिकित्सक रिश्वत लेने के आरोप में सजा तक भुगत रहे हैं।

इस शहर के लोगों का इस चिकित्सालय के प्रति एक विशेष किस्म का भावनात्मक लगाव है। अधिकांश ने इसके अलावा अन्य कोई चिकित्सालय देखा ही नहीं है अतः इसे ही सर्वोत्तम मानने हेतु अभिशप्त हैं। चिकित्सालय परिसर में हनुमान जी का एक मंदिर स्थापित है। आज भी चिकित्सालय से ज्यादा आस्था लोगों की हनुमान जी के प्रति है। चिकित्सालय की वर्तमान दशा को देखते हुये यह उचित भी है। जबर्दस्त कुप्रबंधन, चिकित्सक एवं अन्य स्टाफ की तमाम कोशिशों के बावजूद यदि कोई मरीज बचकर एवं स्वस्थ होकर जा रहा है तो यह निश्चित रूप से हनुमान जी की शक्ति से ही संभव है।

जिस तरह उस तथाकथित चिकित्सालय-कम-अनुसंधान संस्थान में डॉक्टरों एवं अन्य स्टाफ की नियुक्ति के लिये महत्वपूर्ण शर्त है – उनका बदतमीज होना; उसी तरह मरीजों एवं उनके अटेंडेंट रिश्तेदारों के लिए भी कई बुनियादी शर्तें निर्धारित हैं।

सर्वप्रथम मरीज का पूर्ण रूप से स्वस्थ होना जरूरी है। उसे इस वार्ड से उस वार्ड तक एवं इस डॉक्टर से उस डॉक्टर तक उछल-कूद मचानी होगी, तमाम टेस्ट स्वयं कराने होंगे एवं कर्मचारियों से विभिन्न मिन्नते भी करनी होगी, अतः स्वस्थ मरीज ही यहाँ चिकित्सा लाभ प्राप्त करने आयें, यही उचित होगा।

अब सवाल यह है की पूर्णरूपेण स्वस्थ व्यक्ति चिकित्सालय में जाएगा ही क्यों। वहाँ तो बीमार व्यक्ति ही चिकित्सा लाभ लेने जायेगा। तो ऐसे बीमार व्यक्ति अपने साथ तीन-चार मुस्टंडे टाइप रिश्तेदार-कम-अटेंडेंट की व्यवस्था करके आयें। मरीज के साथ आने वाले अटेंडेंट के लिये आवश्यक है की वह स्वस्थ होने के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से पूर्ण सुदृढ़ हो। तात्पर्य यह है कि चिकित्सा के दौरान वह किसी की कॉलर पकड़ने, हंगामा खड़ा करने, स्थानीय नेताओं एवं मीडिया को बुलाने में माहिर होना चाहिये। यदि ऐसे अटेंडेंट आप के पास हैं तो आप के जीवित बचने की उम्मीद कुछ बेहतर हो जाती है।

यदि आप अकेले हैं या बाहरी हैं एवं चिकित्सालय में आपको एड्मिट होने के सलाह दी गई है, तो सावधान हो जायें। वार्ड में डॉक्टर या नर्स के आने के पहले ही एक दलाल टाइप का व्यक्ति आपसे संपर्क कर पूछेगा कि अटेंडेंट चाहिये क्या। इस तरह के अटेंडेंट की दर एक हजार रुपये प्रतिदिन तक हो सकती है। यह सारा धंधा बिलकुल अवैध तरीके से संचालित है। क्या इस तरह के अटेंडेंट को चिकित्सालय ने पास जारी किए हैं अथवा चिकित्सा सहायक के रूप में किसी तरह का प्रमाण पत्र प्रदान क्यी है, यह जांच का विषय है।

बाहरी व्यक्ति के समक्ष ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दी जायेंगी कि उसे मजबूरी में उस दलाल अटेंडेंट की सेवायें लेनी ही पड़ेंगी। अटेंडेंट आपका रिश्तेदार हो या दलाल- उसे चिकित्सकीय कार्य का प्रारम्भिक ज्ञान होना अति आवश्यक है एवं उसे चिकित्सालय के भूगोल से भी वाकिफ होना चाहिये। हर चार घंटे पर आपको एक पर्ची पकड़ा दी जायेगी कि ये दवाइयाँ अस्पताल में उपलब्ध नहीं हैं एवं बाहर से लानी पड़ेगी। सारे टेस्ट एवं इन्वेस्टिगेशन करने की ज़िम्मेदारी भी अटेंडेंट की ही है। वह खुद व्हील चेयर या स्ट्रेचर में मरीज को लेकर जाएगा एवं तत्पश्चात रिपोर्ट के लिये चक्कर लगाएगा। इसके अलावा भी अन्य कार्य जो वॉर्ड में नियुक्त नर्स अथवा मेडिकल अटेंडेंट को करने हैं वह भी मरीज के रिश्तेदार अटेंडेंट अथवा दलाल अटेंडेंट को ही करने होते हैं।

अब होता यह है कि रिश्तेदार अटेंडेंट तो ज़िम्मेदारी के साथ सारे कार्य करता है क्योंकि उसका संबंधी गंभीर अवस्था में है किन्तु दलाल अटेंडेंट आवश्यकता के समय हमेशा आपको गायब ही मिलेगा। क्योंकि उसने आस-पास के वार्डों के पाँच-छह मरीजों की ज़िम्मेदारी एवं पैसे ले रखे हैं। कुल मिलाकर सब कुछ प्रबंधन की नाक के नीचे चलता रहता है। ऐसा नहीं है कि परिस्थितियाँ अचानक खराब हो गई हैं।  कुल मिलकर सिस्टम का सत्यानाश करने में सभी ने मिलकर कड़ी मेहनत की है एवं इसे सरकारी अस्पताल से भी बदतर बना देने के प्रयास पूरे ज़ोर-शोर से जारी हैं।

वही अपना तथाकथित चिकित्सालय-कम-अनुसंधान संस्थान …….

वहाँ मौजूद 15-20 वार्डों में से किसी भी एक वार्ड का दृश्य ……..

सुबह के दस बज रहे हैं। वार्ड के बाहर मरीज के तीमारदारों अर्थात अटेंडेंट्स की भीड़ लगी है। पता चलता है कि सीनियर डॉक्टर राउंड पर है। अतः सभी को बाहर निकाल दिया गया है। अंदर मरीज, डॉक्टर एवं उसके चंगू-मंगू टाइप लोग ही हैं। सीनियर डॉक्टर की पहचान होती है कि हर पाँच मिनट पर वह पागलों कि तरह चीखता है। उसे देखते ही उसके मानसिक विक्षिप्त होने का भ्रम होता है। वह वार्ड में मौजूद हर बेड पर जाने का उपक्रम करता है। जो मरीज उसे घर पर अलग से भुगतान कर सेवायें लेते रहे हैं, उनके बेड पर पाँच से दस मिनट तक का समय देता है। शेष मरीज को पाँच से दस सेकंड में ही निपटा देता है।

अभी वह मोबाइल पर आईसीयू में बात कर रहा है। उसका एक पुराना मरीज जो लंबे समय तक अलग से भुगतान कर उसकी सेवायें लेता रहा है, उसके लिये आईसीयू में बेड कि व्यवस्था करा रहा है, जिससे उसे बेहतर ट्रीटमेंट मिल सके। अन्य मरीजों के तीमारदारों पर वह बेवजह चीख रहा है। उसे गलतफहमी है कि उसे कोई विशेषाधिकार मिला हुआ है।

सीनियर डॉक्टर दो-तीन दिन में एक बार एकाध घंटे के लिये ही आता है। शेष समय वार्ड जूनियर डॉक्टरों एवं नर्सिंग स्टाफ के हवाले रहता है। जूनियर डॉक्टर वह जिसने अभी-अभी डिग्री प्राप्त की है एवं अभी अपनी शपथ नहीं भूला है। वह अपेक्षाकृत विनम्र है एवं 8 से 12 घंटे ईमानदारी के साथ ड्यूटी करता है, जिससे सीनियर डॉक्टर अपनी अनधिकृत प्राइवेट प्रैक्टिस कर सके।

अब अगला दृश्य ………

रात के दस बज रहे हैं। शिफ्ट बदल रही है। अचानक एक मरीज की तबीयत तेजी से बिगड़ती है। उसकी साँसे उखड़ रही है। वार्ड में हमेशा की तरह जूनियर डॉक्टर की मौजूदगी है। मरीज का रिश्तेदार उसे मरीज की हालत के बारे में बताता है। मरीज की उम्र लगभग 75 वर्ष। डॉक्टर की शिफ्ट खत्म होने वाली है, किन्तु लगभग वह भागता हुआ पहुंचता है। हालत गंभीर है। वह अपने साथी को जो दूसरे वार्ड में पदस्थ है, बुलाता है।

अब शुरू होता है, मौत को चुनौती देने का दौर। वार्ड में मौजूद नर्सिंग स्टाफ, अन्य मरीज एवं उनके तीमारदार डॉक्टरों के प्रयास को आंखे फाड़-फाड़ कर देख रहे हैं। मरीज की छाती पर दोनों पंप कर रहे हैं बारी-बारी, किसी तरह उखड़ती साँसों को पुनः सम्हालने का प्रयास जारी है। अचानक मरीज को तेज उल्टी होती है एवं दोनों डॉक्टरों के कपड़े एवं शरीर गीले हो चुके हैं। वह न कपड़ों की परवाह कर रहे हैं एवं न देखने वालों की। अंततः मरीज के शरीर में हरकत होती है एवं उसकी सांसें लौट आती है। दोनों संतोष की सांस लेते हैं।

वार्ड में मौजूद हर शख्स उन्हे कृतज्ञता से देख रहा है। तमाम मुश्किलों के बावजूद उम्मीद आज भी जिंदा है। क्या कारण है कि जो डॉक्टर आज अपनी शपथ पूरी कर्मठता से निभा रहा है वही दस-पंद्रह वर्षों बाद वरिष्ठता को प्राप्त होते ही अमानवीय एवं बद्तमीज़ हो जाता है। क्या इस चिकित्सालय की बुनियाद में ही कुछ खराबी है।

(अरुण कुमार मिश्रा)

Author Profile

Arun Mishra
Arun Mishraअरुण मिश्रा (अतिथि लेखक)
मैं अरुण कुमार मिश्रा मूलतः भिलाई छत्तीसगढ़ से है। वर्तमान में एनटीपीसी खरगोन में बतौर हिंदी अधिकारी कार्यरत है। गोंडवाना एक्सप्रेस मीडिया के विशेष अतिथि लेखक है.